कर्म और उसका रहस्य
(जनवरी ४, १९०० ई. को लॉसएंजिलिस, कैलिफोर्निया में दिया हुआ भाषण)
अपने जीवन में मैंने जो श्रेष्ठतम पाठ पढ़े हैं, उनमें एक यह है कि किसी भी
कार्य के साधनों के विषय में उतना ही सावधान रहना चाहिए, जितना कि उसके साध्य
के विषय में। जिनसे मैंने यह बात सीखी, वे एक महापुरुष थे। यह महान् सत्य
स्वयं उनके जीवन में प्रत्यक्ष रूप में परिणत हुआ था। इस एक सत्य से मैं
सर्वदा बड़े बड़े पाठ सीखता आया हूँ। और मेरा यह मत है कि सब प्रकार की
सफलताओं की कुंजी इसी तत्त्व में है - साधनों की ओर भी उतना ही ध्यान देना
आवश्यक है, जितना साध्य की ओर।
हमारे जीवन में एक बड़ा दोष यह है कि हम आदर्श से ही इतना अधिक आकृष्ट रहते
हैं, लक्ष्य हमारे लिए इतना अधिक आकर्षक होता है, ऐसा मोहक होता है और हमारे
मानस क्षितिज पर इतना विशाल बन जाता है कि बारीकियाँ हमारी दृष्टि से ओझल हो
जाती हैं।
लेकिन कभी असफलता मिलने पर हम यदि बारीकी से उसकी छानबीन करें, तो निन्यानबे
प्रतिशत यही पाएंगें कि उसका कारण था हमारा साधनों की ओर ध्यान न देना। हमें
आवश्यकता है अपने साधनों को पुष्ट करने की और उन्हें पूर्ण बनाने की। यदि
हमारे साधन बिल्कुल ठीक है, तो साध्य की प्राप्ति होगी ही। हम यह भूल जाते
हैं कि कारण ही कार्य का जन्मदाता है, कार्य स्वत: उत्पन्न नहीं हो सकता,
और जब तक कारण अभीष्ट, समुचित और सशक्त न हों, कार्य की उत्पत्ति नहीं
होगी। एक बार हमने ध्येय निश्चित कर लिया और उसके साधन पक्के कर लिए कि फिर
हम ध्येय को लगभग छोड़ सकते हैं, क्योंकि हम विश्वस्त हैं कि यदि साधन
पूर्ण हैं, तो साध्य तो प्राप्त ही होगा। जब कारण विद्यमान है, तो कार्य की
उत्पत्ति होगी ही। उसके बारे में विशेष चिंता की कोई आवश्यकता नहीं। यदि
कारण के विषय में हम सावधान रहें, तो कार्य स्वयं संपन्न हो जाएगा। कार्य है
ध्येय की सिद्धि; और कारण है साधन। इसलिए साधन की ओर ध्यान देते रहना जीवन
का एक बड़ा रहस्य है। गीता में भी हमने यही पढ़ा और सीखा है कि हमें लगातार
भरसक काम करते ही जाना चाहिए; काम चाहे जैसा भी हो, अपना पूरा मन उस ओर लगा
देना चाहिए; पर साथ ही ध्यान रहे, हम उसमें आसक्त न हो जाएँ। अर्थात् कार्य
से किसी भी विषय द्वारा हमारा ध्यान न हटे; फिर भी हममें यह शक्ति हो कि हम
इच्छानुसार कार्य को छोड़ सकें।
यदि हम अपने जीवन का विश्लेषण करें तो हम देखेंगे कि दु:ख का सबसे बड़ा हेतु
यह है : हम कोई बात हाथ में लेते हैं और अपनी पूरी ताक़त उसमें लगा देते हैं;
कभी कभी असफलता होती है, पर फिर भी हम उसका त्याग नहीं कर सकते। यह आसक्ति ही
हमारे दु:ख का सबसे बड़ा कारण है। हम जानते हैं कि वह हमें हानि पहुँचा रही है
और उसमें चिपके रहने से केवल दु:ख ही हाथ आएगा, परंतु फिर भी हम उससे अपना
छुटकारा नहीं कर सकते। मधुमक्खी तो शहर चाटने आई थी, पर उसके पैर चिपक गए उस
मधुचषक से और वह छुटकारा नहीं पा सकी। बार बार हम अपनी यही स्थिति अनुभव करते
हैं। यही हमारे अस्तित्व का संपूर्ण रहस्य है। हम यहाँ आए थे मधु पीने, पर
हम देखते हैं हमारे हाथ-पाँव उसमें फँस गए हैं। आए थे पकड़ने के लिए, पर
स्वयं ही पकड़ गए ! आए थे उपभोग के लिए, पर खुद ही उपभोग्य बन बैठे ! आए थे
हूकूमत करने, पर हम पर ही हूकूमत होने लगी ! आए थे कुछ काम करने, पर देखते हैं
कि हमसे ही काम लिया जा रहा है ! हर घड़ी यही अनुभव होता है। हमारे जीवन की
छोटी-छोटी बातों का भी यही हाल है। दूसरों के मन हम पर हूकूमत चला रहे हैं और
हम सदा यही प्रयत्न कर रहे हैं कि हमारी हूकूमत दूसरों के मनों पर चले। हम
जीवन के आनंद का उपभोग करना चाहते हैं, पर वे भोग हमारे प्राणों का ही भक्षण
कर जाते हैं। हम प्रकृति से सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं, पर अंतत: हम
यही देखते हैं कि प्रकृति ने हमारा सर्वस्व हरण कर लिया है, उसने हमें पूरी
तौर से चूसकर अलग फेंक दिया है।
यदि ऐसा न होता, तो जीवन में सब हरा-भरा ही होता। पर चिंता नहीं। यद्यपि
सफलताएँ मिलती हैं और असफलताएँ भी, यद्यपि यहाँ आनंद है और दु:ख भी, तो भी यह
जीवन निरंतर हरा-भरा रह सकता है, यदि केवल हम बंधन में न पड़ जाएँ।
दु:ख का एकमेव कारण यह है कि हम आसक्त हैं, हम बँधते जा रहे हैं। इसीलिए गीता
में कहा है : निरंतर काम करते रहो, पर आसक्त मत होओ; बंधन में मत पड़ो।
प्रत्येक वस्तु से अपने आपको स्वतंत्र बना लेने की शक्ति स्वयं में संचित
रखो। वह वस्तु तुम्हें बहुत प्यारी क्यों न हो, तुम्हारा प्राण उसके लिए
चाहे जितना ही लालायित क्यों न हो, उसके त्यागने में तुम्हें चाहे जितना
कष्ट क्यों न उठाना पड़े, फिर भी अपनी इच्छानुसार उसके त्याग करने की अपनी
शक्ति सँजोये रहो। कमजोर न तो इस जीवन के योग्य हैं, न किसी पर जीवन के।
दुर्बलता से मनुष्य ग़ुलाम बनता है। दुर्बलता से ही सब प्रकार के शारीरिक और
मानसिक दु:ख आते हैं। दुर्बलता ही मृत्यु है। लाखों-करोड़ों कीटाणु हमारे
आसपास हैं, पर जब तक हम दुर्बल नहीं होते, जब तक शरीर उनके प्रति पूर्व
प्रवृत्त नहीं होता, तब तक वे हमें कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। ऐसे करोड़ों
दु:ख रूपी कीटाणु हमारे आसपास क्यों न मँडराते रहें, पर कुछ चिंता न करो। जब
तक हमारा मन कमजोर नहीं होता, तब तक उनकी हिम्मत नहीं कि वे हमारे पास फटकें,
उनमें ताकत नहीं कि वे हम पर हमला करें। यह एक बड़ा सत्य है कि बल ही जीवन है
और दुर्बलता ही मरण। बल ही अनंत सुख है, अमर और शाश्वत जीवन है, और दुर्बलता
ही मृत्यु।
आसक्ति ही अभी हमारे सब सुखों की जननी है। हम अपने मित्रों और संबंधियों में
आसक्त हैं; हम अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक कार्यों में आसक्त हैं; हम बाह्य
वस्तुओं में आसक्त हैं। इसलिए कि उनसे हमें सुख मिले। पर क्या इस आसक्ति के
अतिरिक्त अन्य और किसी कारण से हम पर दु:ख आता है? अतएव, आनंद प्राप्त करने
के लिए हमें अनासक्त होना चाहिए। यदि हममें इच्छा मात्र से अनासक्त होने की
शक्ति होती है, तो हमें कभी दु:ख न होता। केवल वही मनुष्य प्रकृति से पूरा
पूरा लाभ उठा सकता है, जो किसी वस्तु में अपने मन को अपनी समस्त शक्ति के
साथ लगा देने के साथ ही अपने को स्वेच्छा से, जब उससे अलग हो जाना चाहिए तब
उससे अलग कर लेने की भी सामर्थ्य रखता है। कठिनाई यह है कि आसक्ति और
अनासक्ति की क्षमता समान रूप से होनी चाहिए। संसार में ऐसे भी मनुष्य हैं, जो
किसी वस्तु द्वारा कभी आकृष्ट नहीं होते। वे कभी प्यार नहीं कर सकते, वे
कठोर हृदय और निमर्म होते हैं, दुनिया के अधिकांश दु:खों से वे मुक्त रहते
हैं। किंतु प्रश्न उठ सकता है, दीवाल भी तो कभी कोई दु:ख अनुभव नहीं करती,
दीवाल भी तो कभी प्यार नहीं करती और न उसे कोई कष्ट होता है। पर दीवाल आखिर
दीवाल ही है ! दीवाल बनने से तो आसक्त होना और बँध जाना निश्चय ही अच्छा
है। अतएव, जो मनुष्य कभी प्यार नहीं करता, जो कठोर और पाषाण-हृदय है और इसी
कारण जीवन के अनेक दु:खों से छुटकारा पा जाता है, वह जीवन के अनेक सुखों से भी
हाथ धो बैठता है। हम यह नहीं चाहते। यह तो दुर्बलता है। यह तो मृत्यु है। जो
कभी दु:ख नहीं अनुभव करती, जो कभी दुर्बलता नहीं महसूस करती, वह आत्मा अभी
अजाग्रत है। यह एक निष्ठुर दशा है। हम यह नहीं चाहते।
पर साथ ही, हम केवल इतना ही नहीं चाहते कि यह प्रेम की अथवा आसक्ति की महान्
शक्ति, एक ही वस्तु पर सारी लगन लगा देने की ताक़त, या दूसरों के लिए अपना
सर्वस्व खो बैठने और स्वयं का विनाश तक कर डालने का देव-सुलभ गुण हमें
उपलब्ध हो जाए, वरन् हम देवताओं से भी उच्चतर होना चाहते हैं। सिद्ध पुरुष
अपनी संपूर्ण लगन प्रेम की वस्तु पर लगा सकता है और फिर भी अनासक्त रह सकता
है। यह कैसे संभव होता है? यह एक दूसरा रहस्य है, जो सीखना चाहिए।
भिखारी कभी सुखी नहीं होता। उसे केवल भीख ही मिलती है और वह भी दया और
तिरस्कार से मुक्त; उसके पीछे कम से कम यह कल्पना तो अवश्य ही होती है कि
भिखारी एक निकृष्ट जीव है। जो कुछ वह पाता है, उसका सच्चा उपभोग उसे कभी
नहीं मिलता।
हम सब भिखारी हैं। जो कुछ हम करते हैं, उसके बदले में हम कुछ चाह रखते हैं। हम
लोग हैं व्यापारी। हम जीवन के व्यापारी हैं, शील के व्यापारी हैं, धर्म के
व्यापारी हैं। अफसोस ! हम प्यार के भी व्यापारी हैं।
यदि तुम व्यापार करने चलो, यदि वह लेन-देन का सवाल है, बेचने और मोल लेने का
सवाल है, तो तुम्हें क्रय और विक्रय के नियमों का पालन करना होगा। कभी समय
अच्छा होता है, कभी बुरा। भाव में चढ़ाव-उतार होता ही रहता है और कभी चोट खा
जाने की आशा तुम कर सकते हो। व्यापार तो आइने में मुँह देखने के समान है।
तुम्हारा प्रतिबिंब उसमें पड़ता है। तुम मुँह बनाओ और आइने में मुँह बन जाता
है। तुम हँसो और आइना हँसने लगता है। यह है खरीद और बिक्री, लेन और देन।
हम फँस जाते हैं। कैसे? उससे नहीं जिसे हम देते हैं, वरन् उससे जिसके पाने की
हम अपेक्षा करते हैं। हमारे प्यार के बदले हमें मिलता है दु:ख। इसलिए नहीं कि
हम प्यार करते हैं, वरन् इसलिए कि हम बदले में चाहते हैं प्यार। जहाँ चाह
नहीं है, वहाँ दु:ख भी नहीं है। वासना, चाह - यही दु:खों की जननी है। वासनाएँ
सफलता और असफलता के नियमों से बद्ध हैं। वासनाओं का परिणाम दु:ख ही होता है।
अतएव, सच्चे सुख और यथार्थ सफलता का महान् रहस्य यह है कि बदले में कुछ भी न
चाहनेवाला बिल्कुल नि:स्वार्थी व्यक्ति ही सबसे अधिक सफल व्यक्ति होता है।
यह तो एक विरोधाभास सा है; क्योंकि क्या हम यह नहीं जानते कि जो
नि:स्वार्थी हैं, वे इस जीवन में ठगे जाते हैं, उन्हें चोट पहुँचती है? ऊपरी
तौर से देखो, तो यह बात सच मालूम होती है। 'ईसा मसीह नि:स्वार्थी थे, पर तो
भी उन्हें सूली पर चढ़ाया गया', - यह सच है; किंतु हम यह भी जानते हैं कि
उनकी नि:स्वार्थपरता एक महान् विजय का कारण है - और वह विजय है कोटि-कोटि
जीवनों पर सच्ची सफलता के वरदान की वर्षा।
कुछ भी न माँगो, बदले में कोई चाह न रखो। तुम्हें जो कुछ देना हो, दे दो। वह
तुम्हारे पास वापस आ जाएगा; लेकिन आज ही उसका विचार मत करो। वह हजार गुना हो
वापस आएगा, पर तुम अपनी दृष्टि उधर मत रखो। देने की ताक़त पैदा करो। दे दो और
बस काम खत्म हो गया। यह बात जान लो कि संपूर्ण जीवन दानस्वरूप है; प्रकृति
तुम्हें देने के लिए बाध्य करेगी। इसलिए स्वेच्छापूर्वक दो। एक न एक दिन
तुम्हें दे देना ही पड़ेगा। इस संसार में तुम जोड़ने के लिए आते हो। मुट्ठी
बाँधकर तुम चाहते हो लेना,लेकिन प्रकृति तुम्हारा गला दबाती है और तुम्हें
मुट्ठी खोलने को मजबूर करती है। तुम्हारी इच्छा हो या न हो, तुम्हें देना
ही पड़ेगा। जिस क्षण तुम कहते हो कि 'मैं नहीं दूँगा', एक घूंसा पड़ता है और
तुम चोट खा जाते हो। दुनिया में आए हुए प्रत्येक व्यक्ति को अंत में अपना
सर्वस्व दे देना होगा। इस नियम के विरुद्ध बरतने का मनुष्य जितना अधिक
प्रयत्न करता है, उतना ही अधिक वह दु:खी होता है। हम में देने की हिम्मत
नहीं है, प्रकृति की यह उदात्त माँग पूरी करने के लिए हम तैयार नहीं हैं, और
यही है हमारे दु:ख का कारण। जंगल साफ हो जाते हैं, पर बदले में हमें उष्णता
मिलती है। सूर्य समुद्र से पानी लेता है, इसलिए कि वह वर्षा करे। तुम भी
लेन-देन के यंत्र मात्र हो। तुम इसलिए लेते हो कि तुम दो। बदले में कुछ भी मत
माँगो। तुम जितना ही अधिक दोगे, उतना ही अधिक तुम्हें वापस मिलेगा। जितनी ही
जल्दी इस कमरे की हवा तुम खाली करोगे, उतनी ही जल्दी यह बाहरी हवा से भर
जाएगा। पर यदि तुम सब दरवाजे-खिड़कियाँ और रंध्र बंद कर लो, तो अंदर की हवा
अंदर रहेगी जरूर, किंतु बाहरी हवा कभी अंदर नहीं आएगी, जिससे अंदर की हवा
दूषित, गंदी और विषैली बन जाएगी। नदी अपने आपको समुद्र में लगातार खाली किए जा
रही है और वह फिर से लगातार भरती आ रही है। समुद्र की ओर गमन बंद मत करो। जिस
क्षण तुम ऐसा करते हो, मृत्यु तुम्हें आ दबाती है।
इसलिए भिखारी मत बनो। अनासक्त रहो। जीवन का यही एक अत्यंत कठिन कार्य है। पर
मार्ग की आपत्तियों के संबंध में सोचते मत रहो। कल्पना-शक्ति द्वारा
आपत्तियों का चित्र खड़ा करने से भी हमें उनका सच्चा ज्ञान नहीं होता, जब तक
हम उनका प्रत्यक्ष अनुभव न करें। दूर से उद्यमान का विहंगम दृश्य दिख सकता
है, पर इससे क्या? उसका सच्चा ज्ञान और अनुभव तो अंदर जाने पर हमें होता है।
चाहे हमें प्रत्येक कार्य में असफलता मिले, हमारे टुकड़े टुकड़े हो जाएँ और
खून की धार बहने लगे, फिर भी हमें अपना हृदय थामकर रखना होगा। इन आपत्तियों
में ही अपने ईश्वरत्व की हमें घोषणा करनी होगी। प्रकृति चाहती है कि हम
प्रतिक्रिया करें; घूंसे के लिए घूंसा, झूठ के लिए झूठ और चोट के लिए भरसक चोट
लगायें। पर बदले में प्रतिघात न करने के लिए, संतुलन बनाए रखने के लिए तथा
अनासक्त होने के लिए परा दैवी शक्ति की आवश्यकता होती है ।
अनासक्त बनने का अपना निश्चय हम प्रतिदिन दुहराते हैं। हम अपनी दृष्टि पीछे
डालते हैं और देखते हैं अपनी आसक्ति और प्रेम के पुराने विषयों की ओर, और
अनुभव करते हैं कि उनमें से प्रत्येक ने हमें कैसे दु:खी बनाया, अपने
'प्यार' के कारण हम किस प्रकार निराशा के गर्त में पड़ गए, सदा दूसरों के
हाथों गुलाम ही रहते आए और नीचे ही नीचे खिंचते गए ! हम फिर से नया निश्चय
करते हैं, 'आज से मैं स्वयं पर अपना शासन करूँगा, मैं अपना स्वामी बनूँगा।'
पर समय आता है और फिर से एक बार वही पुराना किस्सा ! हम फिर बंधन में पड़
जाते हैं और मुक्त नहीं हो पाते। पक्षी जाल में फँस जाता है, छटपटाता है,
फड़फड़ाता है। यही है हमारा जीवन।
मुझे इन कठिनाइयों का ज्ञान है; वे भयानक हैं। नब्बे प्रतिशत निराश हो धैर्य
खो बैठते हैं। वे प्राय: निराशावादी बन जाते हैं और प्रेम तथा सचाई में
विश्वास करना छोड़ देते हैं। जो कुछ दिव्य एवं भव्य है, उस पर से भी उनका
विश्वास उठ जाता है। इसीलिए हम देखते हैं कि जो मनुष्य जीवन के आरंभ में
क्षमाशील, दयालु, सरल और निष्पाप थे, बूढ़ापे में झूठे और पाखंडी बन जाते
हैं। उनके मन जटिलताओं से भर जाते हैं। संभव है कि उसमें उनकी बाह्य नीति हो।
हो सकता है कि इनमें से अधिकांश लोग ऊपर ऊपर से गरम मिज़ाज के न हों, वे कुछ
बोलते न हों; पर यह उनके लिए अच्छा होता कि वे बोलते। उनके हृदय की स्फूर्ति
मर चुकी है और इसीलिए वे नहीं बोलते। वे न तो शाप देते हैं और न क्रोध करते
हैं; पर यह उनके लिए अधिक अच्छा होता, यदि वे क्रोध कर सकते, हजार गुना
अच्छा होता, यदि वे शाप दे सकते। वे असमर्थ हैं। उनके हृदय में मृत्यु है,
क्योंकि ठंडे हाथों ने उसको ऐसा जकड़ लिया है कि वह अब एक शाप देने या एक
कड़ा शब्द कहने तक के लिए भी स्पंदित नहीं हो सकता।
यह आवश्यक है कि हम इन सबसे बचें। इसीलिए मैं कहता हूँ कि हमें परा दैवी
शक्ति की ज़रूरत है। अतिमानवी शक्ति पर्याप्त नहीं है। परा दैवी शक्ति ही
छुटकारे का एकमेव मार्ग है। केवल उसीके बल पर हम इन उलझनों और जटिलताओं में
से, आपत्तियों की इन बौछारों में से बिना झुलसे पार जा सकते हैं। चाहे हम चीर
डाले जाएँ और हमारे चिथड़े चिथड़े कर दिए जाएँ, पर हमारा हृदय सर्वदा अधिकाधिक
उदार ही होता जाना चाहिए।
यह बहुत कठिन है, पर यह कठिनाई लगातार अभ्यास द्वारा दूर की जा सकती है। हमें
यह ध्यान रखना चाहिए कि जब तक हम अपने आपको दुर्बल न बनाएं, तब तक हम पर कुछ
नहीं हो सकता। मैंने अभी ही कहा है कि जब तक शरीर रोग के प्रति पूर्वप्रवृत्त
न हो, मुझे कोई रोग न होगा। रोग होना केवल कीटाणुओं पर ही अवलंबित नहीं है, पर
शरीर की पूर्वानुकूलता पर भी। हमें वही मिलता है, जिसके हम पात्र हैं। आओ, हम
अपना अभिमान छोड़ दें और यह समझ लें कि हम पर आई हुई कोई भी आपत्ति ऐसी नहीं
है, जिसके हम पात्र न थे। फिजूल चोट कभी नहीं पड़ी; ऐसी कोई बुराई नहीं है, जो
मैंने स्वयं अपने हाथों न बुलायी हो। इसका हमें ज्ञान होना चाहिए। तुम
आत्मनिरीक्षण कर देखो, तो पाओगे कि ऐसी एक भी चोट तुम्हें नहीं लगी, जो
स्वयं तुम्हारी ही की गई न हो। आधा काम तुमने किया और आधा बाहरी दुनिया ने,
और इस तरह तुम्हें चोट लगी। यह विचार हमें गंभीर बना देगा। और साथ ही, इस
विश्लेषण से आशा की आवाज आएगी, 'बाह्य जगत् पर मेरा नियंत्रण भले न हो, पर जो
मेरे अंदर है, जो मेरे अधिक निकट है, वह मेरा अंतर्जगत् मेरे अधिकार में है।
यदि असफलता के लिए इन दोनों के संयोग की आवश्यकता होती हो, यदि चोट लगाने के
लिए इन दोनों का इकट्ठे होना जरूरी हो, तो मेरे अधिकार में जो दुनिया है, उसे
मैं न छोडूँगा, फिर देखूँगा कि मुझे चोट कैसे लगती है? यदि मैं स्वयं पर
सच्चा प्रभुत्व पा जाऊँ, तो चोट कभी न लग सकेगी।'
हम बचपन से ही सर्वदा अपने से बाहर किसी दूसरी वस्तु पर दोष मढ़ने का
प्रयत्न किया करते हैं। हम सदा दूसरों के सुधार में तत्पर रहते हैं, पर अपने
सुधार में नहीं। यदि हम दु:खी होते हैं, तो चिल्लाते हैं कि 'यह तो शैतान की
दुनिया है !' हम दूसरों को दोष देते हैं और कहते हैं, 'कैसे मोहग्रस्त पागल
हैं !' पर यदि हम सचमुच इतने अच्छे हैं, तो हम ऐसी दुनिया में भला रहते कैसे
हैं? यदि यह शैतान की दुनिया हैं, तो हम भी शैतान ही हैं, नहीं तो हम यहाँ
क्यों रहते? ओह, संसार के लोग कितने स्वार्थी हैं !' सच है, पर यदि हम उनसे
अच्छे हैं, तो फिर हमारा उनसे संबंध कैसे हुआ? जरा यह सोचो तो।
जिसके हम पात्र हैं, वही हम पाते हैं। जब हम कहते हैं कि दुनिया बुरी है और हम
अच्छे, तो यह सरासर झूठ है। ऐसा कभी हो नहीं सकता। यह एक भीषण असत्य है, जो
हम अपने से कहते हैं।
अतएव, सीखने का पहला पाठ यह है : निश्चय कर लो कि बाहरी किसी भी वस्तु पर
तुम दोष न मढ़ोगे, उसे अभिशाप न दोगे। इसके विपरीत, मनुष्य बनो, उठ खड़े हो
और दोष स्वयं अपने ऊपर मढ़ो। तुम अनुभव करोगे कि यह सर्वदा सत्य है। स्वयं
अपे को वश में करो।
क्या यह लज्जा का विषय नहीं है कि एक बार तो हम अपने मनुष्यत्व की, अपने
देवता होने की बड़ी बड़ी बातें करें, हम कहें कि हम सर्वज्ञ हैं, सब कुछ करने
में समर्थ हैं, निर्दोष हैं, पापहीन हैं और दुनिया में सबसे नि:स्वार्थी हैं,
और दूसरे ही क्षण एक छोटा सा पत्थर भी हमें चोट पहुँचा दे, किसी साधारण से
साधारण मनुष्य का ज़रा सा क्रोध भी हमें जख्मी कर दे और कोई भी चलता राहगीर
'हम देवताओं' को दु:खी बना दे ! यदि हम ऐसे देवता हैं, तो क्या ऐसा होना
चाहिए? क्या दुनिया को दोष देना उचित है? क्या परमेश्वर, जो पवित्रतम और
सबसे उदार है, हमारी किसी भी चालबाजी के कारण दु:ख में पड़ सकता है। यदि तुम
सचमुच इतने नि:स्वार्थी हो, तो तुम परमेश्वर के समान हो। फिर कौन सी दुनिया
तुम्हें चोट पहुँचा सकती है? सातवें नरक में से भी तुम बिना झुलसे, बिना
स्पर्श हुए निकल जाओगे। पर यह बात ही कि तुम शिकायत करते हो और बाहरी दुनिया
पर दोष मढ़ना चाहते हो, बताती है कि तुम्हें बाहरी दुनिया का बोध हो रहा है;
और इसी से यह स्पष्ट है कि तुम वह नहीं हो, जैसा अपने को बतलाते हो। दु:ख पर
दु:ख रचकर और यह मान लेकर कि दुनिया हमें चोट पहुँचाए जा रही है, तुम अपने
अपराध को अधिक बड़ा बनाते जाते हो और चीखते जाते हो, 'अरे बाप रे, यह तो शैतान
की दुनिया है ! यह मनुष्य मुझे चोट पहुँचा रहा है, वह मनुष्य मुझे चोट
पहुँचा रहा है'- आदि आदि। यह तो दु:ख पर झूठ का रंग चढ़ाना हुआ।
अपनी चिंता हमें स्वयं ही करनी है। इतना तो हम कर ही सकते हैं। हमें कुछ समय
तक दूसरों की ओर ध्यान देने का खयाल छोड़ देना चाहिए। आओ, हम अपने साधनों को
पूर्ण बना लें; फिर साध्य अपनी चिंता स्वयं कर लेगा। क्योंकि दुनिया तभी
पवित्र और अच्छी हो सकती है, जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह है कार्य
और हम हैं उसके कारण। इसलिए आओ, हम अपने आपको पवित्र बना लें ! आओ, हम अपने
आपको पूर्ण बना लें !
कर्मयोग
मानसिक और भौतिक सभी विषयों से आत्मा को पृथक् कर लेना ही हमारा लक्ष्य है।
इस लक्ष्य के प्राप्त हो जाने पर आत्मा देखती है कि वह सर्वदा ही एकाकी रही
है और उसे सुखी बनाने के लिए अन्य किसी की आवश्यकता नहीं। जब तक अपने को
सुखी बनाने के लिए हमें अन्य किसी की आवश्यकता होती है, तब तक हम दास हैं।
जब 'पुरुष' जान लेता है कि वह मुक्त है, उसे अपनी पूर्णता के लिए अन्य किसी
की आवश्यकता नहीं,एवं यह प्रकृति नितांत अनावश्यक है, तब कैवल्य-लाभ हो
जाता है।
मनुष्य चाँदी के चंद टुकड़ों के पीछे दौड़ता रहता है और उनकी प्राप्ति के लिए
अपने एक सजातीय को भी धोखा देने में नहीं हिचकता; पर यदि वह स्वयं पर
नियंत्रण रखे तो कुछ ही वर्षों में अपने चरित्र का ऐसा सुंदर विकास कर सकता है
कि यदि वह चाहे तो लाखों रूपये उसके पास आ जाएँ। तब वह अपनी इच्छा-शक्ति से
जगत् का परिचालन कर सकता है। किंतु हम कितने निर्बुद्धि हैं !
अपनी भूलों को संसार को बतलाते फिरने से क्या लाभ? इस तरह उनका परिहार तो हो
नहीं सकता। अपनी करनी का फल तो सबको भुगतना ही पड़ेगा। हम यही कर सकते हैं कि
भविष्य में अधिक अच्छा काम करें। बली और शक्तिमान के साथ ही संसार की
सहानुभूति रहती है।
केवल वही कर्म, जो मानवता और प्रकृति को मुक्त संकल्प द्वारा अर्पित करने के
रूप में किया जाता है, बंधन का कारण नहीं होता।
किसी भी प्रकार के कर्तव्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति कोई छोटा
या नीचा काम करता है, वह केवल इसी कारण ऊँचा काम करने वाले की अपेक्षा छोटा या
हीन नहीं हो जाता। मनुष्य की परख उसके कर्तव्य की उच्चता या हीनता की कसौटी
पर नहीं होनी चाहिए, वरन् यह देखना चाहिए कि वह कर्तव्यों का पालन किस ढंग से
करता है। मनुष्य की सच्ची पहचान तो अपने कर्तव्यों को करने की उसकी शक्ति
और शैली में होती है। एक मोची, जो कि कम से कम समय में बढि़या और मजबूत जूतों
की जोड़ी तैयार कर सकता है, अपने व्यवसाय में उस प्राध्यापक की अपेक्षा कहीं
अधिक श्रेष्ठ है, जो अपने जीवन भर प्रतिदिन थोथी बकवास ही किया करता है।
प्रत्येक कर्तव्य पवित्र है और कर्तव्य-निष्ठा भगवत्पूजा का
सर्वोत्कृष्ट रूप है; बद्ध जीवों की भ्रांत, अज्ञानतिमिराच्छन्न आत्माओं
को ज्ञान और मुक्ति दिलाने में यह कर्तव्य-निष्ठा निश्चय ही बड़ी सहायक है।
जो कर्तव्य हमारे निकटतम है, जो कार्य अभी हमारे हाथों में है, उसको सुचारू
रूप से संपन्न करने से हमारी कार्य-शक्ति बढ़ती है; और इस प्रकार क्रमश: अपनी
शक्ति बढ़ाते हुए हम एक ऐसी अवस्था की भी प्राप्ति कर सकते हैं,जब हमें जीवन
और समाज के सबसे ईप्सित एवं प्रतिष्ठित कार्यों को करने का सौभाग्य प्राप्त
हो सके।
प्रकृति का न्याय समान रूप से निर्मम और कठोर होता है। सर्वाधिक
व्यवहार-कुशल व्यक्ति जीवन को न तो भला कहेगा और न बुरा।
प्रत्येक सफल मनुष्य के स्वभाव में कहीं न कहीं विशाल सच्चरित्रता और
सत्यनिष्ठा छिपी रहती हैं, और उसी के कारण उसे जीवन में इतनी सफलता मिलती
है। वह पूर्णतया स्वार्थहीन न रहा हो, पर वह उसकी ओर अग्रसर होता रहा था। यदि
वह संपूर्ण रूप से स्वार्थहीन होता, तो उसकी सफलता वैसी ही महान् होती, जैसी
बुद्ध या ईसा की। सर्वत्र नि:स्वार्थता की मात्रा पर ही सफलता की मात्रा
निर्भर रहती है।
मानव जाति के महान् नेता मंच पर व्याख्यान देने की अपेक्षा उच्चतर
कार्य-क्षेत्र के हुआ करते हैं।
यदि हम पवित्रता या अपवित्रता का अर्थ अहिंसा या हिंसा के रूप मे लें, तब हम
चाहे जितना प्रयत्न करें, हमारा कोई भी कार्य पूर्णतया पवित्र या अपवित्र
नहीं हो सकता। हम बिना किसी की हिंसा किए जी या साँस तक नहीं ले सकते। भोजन का
प्रत्येक ग्रास हम किसी न किसी मुँह से छीनकर ही खाते हैं; हमारा जीवन कुछ
अन्य प्राणियों के जीवन को मिटाता है। चाहे वह जीवन मनुष्य का हो, पशु का
अथवा छोटे से कुकुरमुतों का, पर कहीं न कहीं किसी न किसी को हमारे लिए मिटना
ही पड़ता है। ऐसा होने के कारण यह स्पष्ट ही है कि कर्म द्वारा पूर्णता कभी
नहीं प्राप्त की जा सकती। हम अनंत काल तक कर्म करते रहें, पर इस जटिल
भूलभुलैया से बाहर निकलने का मार्ग नहीं पा सकते। हम कर्म पर कर्म करते रहें,
परंतु उसका कहीं अंत न होगा।
जो मनुष्य प्रेम और स्वतंत्रता से अभिभूत होकर कार्य करता है, उसे फल की कोई
चिंता नहीं रहती परंतु दास कोड़ों की मार चाहता है और नौकर अपना वेतन। ऐसा ही
समस्त जीवन में है। उदाहरणार्थ, सार्वजनिक जीवन को ले लो। सार्वजनिक सभा में
भाषण देने वाला या तो कुछ तालियाँ चाहता है या विरोध-प्रदर्शन ही। यदि तुम इन
दोनों में से उसे कुछ भी न दो, तो वह हतोत्साह हो जाता है, क्योंकि उसे इसकी
जरूरत है। यही दास की तरह काम करना कहलाता है। ऐसी परिस्थितियों में, बदले में
कुछ चाहना हमारी दूसरी प्रकृति बन जाती है। इसके बाद है नौकर का काम, जो किसी
वेतन की अपेक्षा करता है; 'मैं तुम्हें यह देता हूँ और तुम मुझे वह दो'। 'मैं
कार्य के लिए ही कार्य करता हूँ'- यह कहना तो बहुत सरल है, पर इसे पूरा कर
दिखाना बहुत ही कठिन है। मैं कर्म ही के लिए कर्म करनेवाले मनुष्य का दर्शन
करने के लिए बीसों कोस सिर के बल जाने को तैयार हूँ। लोगों के काम में कहीं न
कहीं स्वार्थ छिपा ही रहता है। यदि वह धन नहीं होता, तो शक्ति होती है, यदि
शक्ति नहीं हो तो अन्य कोई लाभ। कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में स्वार्थ
रहता अवश्य है। तुम मेरे मित्र हो, और मैं तुम्हारे लिए तुम्हारे साथ रहकर
काम करना चाहता हूँ। यह सब दिखने में बड़ा अच्छा है; और प्रतिपल मैं अपनी
सच्चाई की दुहाई भी दे सकता हूँ। पर ध्यान रखो, तुम्हें मेरे मत से मत
मिलाकर काम करना होगा ! यदि तुम मुझसे सहमत नहीं होते, तो मैं तुम्हारी कोई
परवाह नहीं करता ! स्वार्थसिद्धि के लिए इस प्रकार का काम दु:खदायी होता है।
जहाँ हम अपने मन के स्वामी होकर कार्य करते हैं, केवल वही कर्म हमें अनासक्ति
और आनंद प्रदान करता है।
एक बड़ा पाठ सीखने का यह है कि समस्त विश्व का मूल्य आँकने के लिए मैं ही
मापदंड नहीं हूँ। प्रत्येक व्यक्ति का मूल्यांकन उसके अपने भावों के अनुसार
होना चाहिए। इसी प्रकार प्रत्येक जाति एवं देश के आदर्शों और रीति-रिवाजों की
जाँच उन्हीं के विचारों, उन्हीं के मानदंड के अनुसार होनी चाहिए।
अमेरिकावासी जिस परिवेश में रहते हैं, वही उनके रीति-रिवाजों का कारण है, और
भारतीय प्रथाएँ भारतीयों के परिवेश की फलोपपत्ति हैं; और इसी प्रकार चीन,
जापान, इंग्लैंड तथा अन्य हर देश के संबंध में भी यही बात है।
हम जिस स्थिति के योग्य हैं, वही हमें मिलती है। प्रत्येक गेंद अपने अनुकूल
छिद्र में ही गिरती है। यदि किसी की योग्यता दूसरे से अधिक है, तो संसार इस
निरंतर चलते रहनेवाले विश्वव्यापी समायोजन की प्रक्रिया में उसे जान लेगा।
अत: बड़बड़ाने से कोई लाभ नहीं। यदि कोई धनी आदमी दुष्ट है, तो उसमें कुछ ऐसे
भी गुण होंगे जिनके कारण वह धनी बना; और यदि किसी दूसरे व्यक्ति में ये गुण
हैं, तो वह भी धनवान बन सकता है। शिकायतों और झगड़ों से क्या लाभ? उससे हम
कुछ अधिक अच्छे तो बन नहीं जाएँगे। जो अपने भाग्य में पड़ी हुई सामान्य
वस्तु के लिए भी बड़बड़ाता है, वह हर एक वस्तु के लिए बड़बड़ाएगा। इस प्रकार
सर्वदा बड़बड़ाते रहने से उसका जीवन दु:खमय हो जाएगा और सर्वत्र असफलता ही
उसके हाथ लगेगी परंतु जो मनुष्य अपने कर्तव्य को पूर्ण शक्ति से करता रहता
है, वह ज्ञान एवं प्रकाश का भागी होगा, और उसे अधिकाधिक ऊँचे कार्य करने के
अवसर प्राप्त होंगे।
कर्म ही उपासना है
सर्वोच्च मानव कर्म नहीं कर सकता, क्योंकि उसके लिए कोई बंधनकारी तत्त्व
नहीं रह जाता, न आसक्ति और न अज्ञान। कहा जाता है कि एक बार एक जहाज चुंबक के
पहाड़ के पास जा निकला, जिससे उसके सारे कील और पेंच खिंचकर निकल गए और वह
टुकड़े-टुकड़े हो गया। अज्ञान की दशा में ही कर्म का संघर्ष रहता है, क्योंकि
हम सब वास्तव में नास्तिक हैं। ईश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले कर्म
नहीं कर सकते। हम सभी न्यूनाधिक मात्रा में नास्तिक हैं। हम न तो ईश्वर को
देखते हैं और न उस पर विश्वास करते हैं। हमारे लिए वह 'ई-श्व-र' अक्षरों का
समूह मात्र या शब्द मात्र है, इससे अधिक कुछ नहीं। हमारे जीवन मे कुछ क्षण
ऐसे आते हैं, जब हम ईश्वर की समीपता का अनुभव करने लगते हैं, पर पुन: हम नीचे
गिर जाते हैं। जब तुमने उसे देख लिया, तब संघर्ष किसके लिए रहेगा? भगवान् की
सहायता करना !- इसके बारे में हमारी भाषा में एक लोकोक्ति है कि 'हम विश्व के
निर्माता को क्या निर्माण-कला सिखाएंगे?' अत: सर्वोच्च कोटि के कर्म नहीं
करते। जब कभी फिर तुम ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें सुनो कि हमें भगवान् की सहायता
करनी चाहिए, अथवा उनके लिए यह करना चाहिए या वह करना चाहिए,तो इस बात को याद
रखना। ऐसे विचार ही मन में न लाओ; ये अत्यंत स्वार्थपूर्ण हैं। तुम जो कुछ
भी कार्य करते हो, उन सबका संबंध तुम्हीसे है और उसे तुम अपने ही भले के लिए
करते हो। भगवान किसी खंदक में नहीं गिर गए हैं, जो उन्हें हमारी या तुम्हारी
सहायता की आवश्यकता है, कि हम अस्पताल बनवाकर या इसी तरह के अन्य कार्य
करके उनकी सहायता कर सकें। उन्हींकी आज्ञा से तुम कर्म कर पाते हो। इस
संसाररूपी व्यायामशाला में भगवान् तुम्हें अपने रंग-पुट्ठों को व्यायाम
द्वारा दृढ़ बनाने का अवसर देते हैं -इसलिए नहीं कि तुम उनकी सहायता करो,
बल्कि इसलिए कि तुम स्वयं अपनी सहायता कर सको। क्या तुम सोचते हो कि तुम
अपनी सहायता से एक चींटी तक को मरने से बचा सकते हो? ऐसा सोचना घोर ईश-निंदा
है ! संसार को तुम्हारी तनिक भी आवश्यकता नहीं। संसार चलता जाता है, तुम इस
संसार सिंधु में बिंदु सदृश हो। बिना प्रभु की इच्छा के एक पत्ता तक नहीं हिल
सकता, हवा भी नहीं बह सकती। हम धन्य हैं, जो हमें यह सौभाग्य प्राप्त है कि
हम उनके लिए कर्म करें, - उनको सहायता देने के लिए नहीं। इस 'सहायता' शब्द को
मन से सदा के लिए निकाल दो। तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते। यह सोचना कि तुम
सहायता कर सकते हो, महा अधर्म है - घोर ईश-निंदा है। तुम स्वयं उनकी इच्छा
से यहाँ पर हो। क्या तुम्हारे कहने का यह तात्पर्य है कि तुम उनकी सहायता
करते हो? नहीं, सहायता नहीं, तुम उनकी पूजा करते हो। जब तुम कुत्ते को एक
ग्रास खाना देते हो, तब तुम कुत्ते की ईश्वर-रूप से पूजा करते हो। ईश्वर उस
कुत्ते में है - कुत्ते के रूप में प्रकट हुआ है। वही सब कुछ है और सबमें है।
हमें उसकी आराधना करने की आज्ञा प्राप्त है। समस्त विश्व के प्रति यही आदर
का भाव लेकर खड़े हो जाओ, और तब तुम्हें पूर्ण अनासक्ति प्राप्त हो जाएगी।
यही तुम्हारा कर्तव्य होना चाहिए? कर्म करने का यही उचित भाव है। कर्मयोग
इसी रहस्य की शिक्षा देता है।
निष्काम कर्म
स्वामी विवेकानंद ने 'निष्काम कर्म' पर रामकृष्ण मिशन की बयालीसवीं सभा
में, जो रामकांत बोस स्ट्रीट पर मकान नं. ५७, बागबाजार, कलकत्ता में २०
मार्च, १८९८ ई. को हुई थी, निम्नलिखित आशय का भाषण दिया था :
जिस समय सर्वप्रथम गीता का उपदेश दिया गया, उस समय दो संप्रदायों में बड़ा
वाद-विवाद चल रहा था। इनमें से एक संप्रदाय वैदिक यज्ञों, पशुबलि तथा इसी
प्रकार के अन्यान्य कर्मों को ही धर्म का सार-सर्वस्व समझता था। दूसरा यह
मानता था कि असंख्य अश्वों एवं पशुओं का वध धर्म नहीं कहा जा सकता। इस दूसरे
संप्रदाय में अधिकतर ज्ञानमार्गी तथा संन्यासी थे। उनका विश्वास था कि
समस्त कर्मों का त्याग और आत्मज्ञान की उपलब्धि ही मोक्ष का एकमात्र मार्ग
है। गीता के प्रणेता कृष्ण ने निष्काम कर्म के अपने महान् सिद्धांत को
प्रतिपादित कर इन दोनों विरोधी दलों के विवाद को शांत कर दिया।
अनेक लोगों का यह मत है कि गीता महाभारत के समय नहीं लिखी गई, वरन् बाद में
उसमें जोड़ दी गई है। यह बात ठीक नहीं है। गीता के जो विशिष्ट सिद्धांत हैं,
वे महाभारत के प्रत्येक भाग में पाए जाते हैं, और यदि गीता को बाद में जोड़ी
हुई मानकर निकाल लिया जाए, तो महाभारत के प्रत्येक भाग में से वे अंश निकालने
पड़ेंगे, जिनमें गीता के सिद्धांत पाए जाते हैं।
निष्काम कर्म का अर्थ क्या है? आजकल बहुत से लोग इसका यह अर्थ समझते हैं कि
कर्म इस प्रकार किया जाए, जिससे मन को हर्ष-विषाद स्पर्श न कर सके। यदि यही
निष्काम कर्म का सच्चा अर्थ हो, तब तो पशुओं को निष्काम कर्मी कहा जा सकता
है। कुछ पशु अपने बच्चों को ही निगल जाते हैं, और ऐसा करने में उन्हें कुछ
भी दु:ख का अनुभव नहीं होता। डाकू अन्य लोगों का सब माल छीनकर उनका सर्वनाश
कर देते हैं, और यदि वे पर्याप्त कठोर होकर दु:ख-सुख की परवाह न करें, तो
उन्हें भी फिर निष्काम कर्मी कहना पड़ेगा। यदि निष्काम कर्म का अर्थ ऐसा ही
हो, तब तो क्रूर, पाषाणहृदय, नीचतम अपराधी मी निष्काम कर्मियों में गिना जा
सकता है। दीवार को सुख-दु:ख का अनुभव नहीं होता, पत्थर में सुख-दु:ख की भावना
नहीं होती, पर यह नहीं कहा जा सकता कि वे निष्काम कर्मी हैं। यदि निष्काम
कर्म उपर्युक्त अर्थ में प्रयुक्त किया जाए, तब तो वह दुष्टों के हाथों में
एक प्रबल अस्त्र बन जाएगा। वे तरह तरह के बुरे कर्म करते जाएँगे और कहेंगे कि
हम तो बिना किसी कामना के ये सब काम कर रहे हैं। इसलिए यदि निष्काम कर्म का
यही अर्थ हो, तब तो हम कहेंगे कि गीता में एक बड़े ही भयानक सिद्धांत का
प्रतिपादन किया गया है। अत: यह अर्थ निश्चित रूप से नहीं हो सकता। फिर,यदि हम
गीता के उपदेश से संबद्ध व्यक्तियों के जीवन को देखें, तो वह भिन्न ही
प्रकार का मालूम होगा। अर्जुन ने युद्ध में भीष्म और द्रोण का संहार किया, और
साथ ही उसने अपनी इच्छाओं, स्वार्थ एवं निम्न प्रकृति का भी लाखों बार
बलिदान किया।
गीता कर्मयोग की शिक्षा देती है। हमें योग (एकाग्रता) के द्वारा कर्म करना
चाहिए। इस प्रकार के कर्मयोग में क्षुद्र अहंभाव की चेतना नहीं रह जाती। जब
योगयुक्त होकर कार्य किया जाता है, तब मैं यह-वह कर रहा हूँ- यह ध्यान ही
नहीं रहता। पाश्चात्यों की समझ में यह बात नहीं आती। वे कहते हैं कि यदि
अहंभाव न रहे, यदि अहं का नाश हो जाए, तो फिर किसी मनुष्य के लिए कार्य कर
सकना किस प्रकार संभव हो सकता है? पर जो अपने को संपूर्णत: भूलकर एकाग्र चित्त
से कार्य करता है, उसका कार्य निश्चय ही अप्रतिम रूप से अच्छा होता है, और
इसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति ने अपने जीवन में किया होगा। हम अनेक कार्य
अचेतन होकर करते रहते हैं, जैसे आहार को पचाना आदि, कुछ कार्य चेतन होकर करते
हैं, तथा अनेक कार्य ऐसे भी होते हैं, जो मानो समाधि-अवस्था में मग्न होकर
संपन्न होते हैं, जब हमें अपने क्षुद्र अहं का बोध नहीं रहता। यदि चित्रकार
अपने को भूलकर चित्र बनाने में ही पूर्ण रूप से लीन हो जाए,तो उसका चित्र एक
महान् कृति होगा। एक अच्छा रसोइया भोजन बनाने के समय अपना सब कुछ उस में लगा
देता है; उस समय तक के लिए वह अन्य सब कुछ भूल जाता है। परंतु ये लोग इस
प्रकार केवल उसी एक कार्य को अच्छी तरह से कर सकते हैं, जिसके लिए वे
अभ्यस्त होते हैं। गीता की शिक्षा है कि सभी कार्यों को इसी तरह पूर्णता के
साथ करना चाहिए। जो योग के द्वारा प्रभु से एकरूप हो गया है, वह अपने सभी
कार्यों को इसी एकाग्रता के साथ करता है और अपने स्वार्थ की कुछ भी चाह नहीं
रखता। इस प्रकार किए हुए कर्म द्वारा संसार की भलाई ही होती है, उससे किसी
प्रकार की बुराई नहीं हो सकती। जो इस प्रकार कर्म करते हैं, वे अपने लिए कभी
कुछ नहीं करते।
प्रत्येक कार्य का फल शुभ और अशुभ से युक्त रहता है। कोई भी शुभ काम ऐसा
नहीं होता, जिसमें अशुभ का कुछ न कुछ स्पर्श न रहता हो। जैसे अग्नि धुएँ से
आवृत्त रहती है, उसी प्रकार कर्म में कोई न कोई दोष लगा ही रहता है। हमें ऐसे
कार्यों में ही रत रहना चाहिए, जिनसे महत्तम शुभ और न्यूनतम अशुभ उत्पन्न
हो। अर्जुन ने भीष्म और द्रोण का वध किया। यदि यह न किया जाता, तो दुर्योधन पर
विजय प्राप्त नहीं होती, अशुभ की शक्तियों की शुभ की शक्तियों पर विजय हो
जाती और इस प्रकार देश पर विपत्तियों के काले बादल मँडराने लगते; अभिमानी और
अन्यायी राजाओं के एक दल के द्वारा राज्य का शासन बलपूर्वक हड़प लिया जाता
और देश की जनता पर दुर्भाग्य की कालिमा फैल जाती। इसी प्रकार कृष्ण ने भी
कंस, जरासंध इत्यादि अत्याचारियों का संहार किया, पर उनका एक भी कार्य उनके
स्वयं के लिए नहीं था। उनका प्रत्येक कार्य दूसरों की भलाई के लिए ही था। हम
दीपक के प्रकाश में गीता का पाठ कर रहे हैं, पर अनेक पतिंगे जलकर मरते जा रहे
हैं। इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक कर्म में कुछ न कुछ दोष रहता
ही है। जो अपना क्षुद्र अहंभाव भूलकर कार्य करते हैं, उन पर इन दोषों का
प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वे संसार की भलाई के लिए कर्म करते हैं। निष्काम
और अनासक्त होकर कार्य करने से हमें परम आनंद और मुक्ति की प्राप्ति होती है।
गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कर्मयोग के इसी रहस्य की शिक्षा दी है।
ज्ञान और कर्म
(१८९५ ई. में, २३ नवंबर को लंदन में दिए गए एक भाषण के लिए लिखित टिप्पणियाँ)
मनुष्य को सर्वोपरि बल विचार-शक्ति से प्राप्त होता है। जितना ही सूक्ष्मतर
तत्त्व होता है, उतना ही अधिक वह शक्तिसंपन्न होता है। विचार की मूक शक्ति
दूरस्थ व्यक्तियों को भी प्रभावित करती है, क्योंकि मन एक भी है और अनेक
भी। विश्व एक जाल है और मानव-मन मकडि़याँ।
यह विश्व एक विश्वव्यापी सत्ता का गोचर रूप है। इंद्रियगोचर वह
विश्वनियंता ही तो हमारा विश्व है। यही माया है। यों तो यह संसार भ्रम है,
सत् की अपूर्ण झाँकी, एक अर्द्ध उद्भास, जैसे प्रात: सूर्य एक लाल गोला दिखाई
देता है। इस प्रकार सभी अशुभ और दुष्प्रवृत्तियाँ दुर्बलता मात्र हैं, शिव की
अपूर्ण झाँकी।
निरंतर विक्षेप किए जाने पर सरल रेखा एक वृत्त बन जाती है। शिव की खोज स्वयं
अपने में ही वापस ले आती है। मैं स्वयं संपूर्ण रहस्य, ब्रह्म हूँ। मैं एक
शरीर भी हूँ, निम्नतर अह्म; और मैं विश्व का प्रभु भी हूँ।
मनुष्य को नैतिक और शुद्ध क्यों होना चाहिए? क्योंकि इससे उसकी
संकल्प-शक्ति बलवती होती है। वह सब, जो मनुष्य की सत् प्रकृति को उद्भासित
करते हुए उसकी संकल्प-शक्ति को सबल बनाए, नैतिक है। और वह सब, जो इसके विपरीत
करे, अनैतिक है। मानदंड देश देश और व्यक्ति व्यक्ति के लिए पृथक् पृथक् है।
मनुष्य को क़ानूनों, शब्दों आदि की दासता की स्थिति से अपने को मुक्त करना
ही चाहिए। आज हममें संकल्प की स्वाधीनता भी नहीं है; पर जब हम स्वाधीन
होंगे, तब होगी। इस संसार को त्याग देना ही संन्यास है, त्याग है।
इंद्रियों के माध्यम से ही क्रोध और शोक का जीवन में प्रवेश होता है। जब तक
संन्यास नहीं हैं, तब तक अहम और उसे सचेतन बनानेवाली वासना परस्पर भिन्न
रहती हैं। अंततोगत्वा यह पार्थक्य मिट जाता है, दोनों एक हो जाते हैं और
मनुष्य पशु बन जाता है। संन्यास की, त्याग की, इस भावना से अपने को
अनुप्राणित करो।
कभी मेरा शरीर था, मेरा जन्म हुआ था, मैंने संघर्ष किए थे और मेरी मृत्यु
हुई थी : यह सब कितना भयावह भ्रमजाल है?- यह सोचना कि व्यक्ति शरीर-पिंजर में
बंदी था और मुक्ति के लिए हाय हाय कर रहा था !
पर क्या संन्यास का अर्थ यह है कि हम सब तपस्वी हो जाएँ? तो फिर दूसरों की
सहायता करने वाला कौन रह जाएगा? संन्यास तपस्या नहीं है। क्या सभी भिखारी
ईसा होते हैं? दरिद्रता साधुता का पर्याय नहीं है; प्राय: विपर्यय है।
संन्यास मन का होता है। इसकी सिद्धि कैसे होती है? एक मरुस्थल में, जब मैं
प्यास था, मैंने एक झील देखी। वह एक मनोहर दृश्यावली के बीच थी। उसे चारों
ओर वृक्ष घेरे हुए थे और उनकी प्रतिच्छाया पानी में उलटी दिखाई देती थी। पर
यह सारा दृश्य मृग-मरीचिका सिद्ध हुआ। तब मुझे ज्ञात हुआ कि एक महने से मैं
प्रतिदिन इस दृश्य को देखता आ रहा था; केवल उस दिन, पिपासु होने पर मुझे उसके
असत् होने का ज्ञान हुआ। अब तैं एक मास तक प्रतिदिन फिर उसे देखूँगा; पर मैं
कभी भी उसे सत्य नहीं समझूँगा। ठीक ऐसे ही, जब हमें भगवत्प्राप्ति हो जाएगी,
तब इस संसार का, इस शरीर आदि का भाव तिरोहित हो जाएगा। इस भाव की पुनरावृत्ति
हो सकी है; पर तब हमें ज्ञान रहेगा कि यह असत् है।
संसार का इतिहास बुद्ध और ईसा जैसे व्यक्तियों का इतिहास है। वासनामुक्त तथा
अनासक्त व्यक्ति ही संसार का सर्वाधिक हित करते हैं। गरीबों की गंदी
बस्तियों में ईसा की कल्पना करो ! उनकी दृष्टि दैन्य से परे जाती है और वे
कहते हैं : 'मेरे बंधुओं, तुम सब दिव्यात्मा हो?' उनका कार्य शांतिपूर्ण है।
वे कारणों को हटाते हैं। मनुष्य संसार के कल्याण में तभी तत्पर हो पाता है,
जब उसे इस तथ्य की सत्य-प्रतीति हो जाती है कि ये सारे क्रिया-कलाप माया
हैं। कार्य जितना ही अचंतन होता है उतना ही श्रेष्ठ होता है; क्योंकि तब वह
अधिक अतिचेतन हो जाता है। हमारी खोज शुभ अथवा अशुभ की खोज नहीं है; पर शुभ और
आनंद, अशुभ और दैन्य की अपेक्षा, सत्य के अधिक निकट हैं। किसी व्यक्ति ने
अपनी अँगुली में एक काँटा चुभो लिया और दूसरे काँटे से उस काँटे को निकाल
डाला। पहला काँटा अशुभ है; दूसरा काँटा शुभ है। आत्मा वह शांति है, जो शुभ और
अशुभ दोनों ही से परे है। यह विश्व तो विघटित हो रहा है; मनुष्य ईश्वर के
समीप खिंचता जा रहा है। एक क्षण के लिए वह सत् बन जाता है, स्वयं ईश्वर !
उसके व्यक्तित्व का पुनर्विकास होता है - एक पैगंबर। और अब उसके संमुख संसार
काँपता है। मूर्ख सोता है, जगता है तब भी मूर्ख रहता है। अचेतन व्यक्ति जब
अतिचेतन होकर जगता है, तो असीम शक्ति, पवित्रता और प्रेम से संपन्न 'देवमानव'
बनकर लौटता है। अतिचेतन या दिव्य चेतन की यही उपयोगिता है।
युद्ध-क्षेत्र में भी ज्ञान का व्यवहार संभव है। गीता का उपदेश ऐसे ही दिया
गया था। मन की तीन अवस्थाएँ होती हैं : सक्रिय, निष्क्रिय और शांत। निष्क्रिय
अवस्था की विशेषता है मंद स्पंदन; सक्रिय अवस्था की विशिष्टता है तीव्र
स्पंदन और शांत अवस्था की विशेषता है सर्वाधिक प्रचंड स्पंदन ! समझो कि
आत्मा रथ में आरूढ़ है। शरीर ही रथ है, बाह्य इंद्रियाँ ही अश्व हैं, मन
लगाम है और बुद्धि' सारथी है। इसी विधि से मनुष्य माया-सागर को पार करता है।
वह इंद्रियातीत हो जाता है। परब्रह्म में अवस्थित हो जाता है। जब तक मनुष्य
अपनी इंद्रियों के अधीन है, तब तक वह संसारी है। जब वह इंद्रियों को अपने अधीन
कर लेता है, वह त्यागी हो जाता है।
क्षमा भी, यदि दुर्बल और निष्क्रिय हो तो, सत्य नहीं है; उससे तो युद्ध
वरेण्य है। क्षमा करो तब, जब अपनी विजय के लिए असंख्य देवदूतों का भी आह्वान
कर सको। अर्जुन के सारथी कृष्ण ने अर्जुन को यह कहते सुना,'हम अपने शत्रुओं
को क्षमा कर दें;' और उन्होंने उत्तर दिया : अशोच्यानन्वशोचस्त्वं
प्रजावादांश्च भाषसे। -- 'बातें तो बड़े विवेकी पुरुष की सी करते हो, पर
अर्जुन, तुम विवेकशील नहीं, कापुरुष हो।' जैसे कमल-पत्र जल में रहकर भी जल से
अस्पृष्ट रहता है, वैसे ही इस संसार में आत्मा को रहना चाहिए। यह एक
युद्ध-क्षेत्र है; इसमें युद्ध करके अपना मार्ग प्रशस्त करो। इस संसार में
जीवन है ईश्वर से साक्षात्कार का प्रयास मात्र ! अपने जीवन को त्याग से
परिपुष्ट संकल्प-शक्ति की अभिव्यक्ति का रूप दो।
हमें अपने समस्त मस्तिष्क-केंद्रों को इच्छानुसार संयमित करना सीखना
चाहिए'। जीवनानंद इसकी पहली सीढ़ी है। तपश्चर्या तो पैशाची है। प्रार्थना
करने की अपेक्षा हँसना अच्छा है। तो गाओ। दैन्य से पीछा छुड़ाओ। भगवान् को
दूसरों को इसकी - दैन्य की - छूत न लगने दो। कभी भी यह मत सोचो कि भगवान् कुछ
सुख और कुछ दु:ख को बेचा करता है। अपने को चारों ओर से सुंदर पुष्पों,
चित्रों और धूप-गंध से आवेष्टित कर लो। संत लोग पर्वत-शिखरों पर प्रकृति का
आनंद लेने के लिए जाते थे।
दूसरी सीढ़ी है पवित्रता।
तीसरी सीढ़ी हैं बुद्धि का प्रशिक्षण। तर्क द्वारा असत्य से सत्य को अलग
करो। यह दृष्टि प्राप्त करो कि एकमात्र ईश्वर ही सत्य है। यदि एक क्षण के
लिए भी तुमने यह सोचा कि तुम स्वयं ईश्वर नहीं हो, तो तुम्हें महाभय ग्रस
लेगा। और जैसे ही तुम सोचोगे, 'सोहम् - मैं वही हूँ', वैसे ही तुम्हें महान्
आनंद और शांति की उपलब्धि होगी। इंद्रियों को वश में लाओ। कोई मुझे शाप देता
है; फिर भी मुझे उसमें ईश्वर का दर्शन करना चाहिए। उसे अपनी ही दुर्बलता के
कारण मैं शाप देनेवाला मान बैठा हूँ। वह दीन, जिसका हम कुछ उपकार करते हैं,
हमें एक विशिष्ट अवसर और अधिकार प्रदान करता है। अपने अनुकंपा से प्रेरित
होकर ईश्वर अपनी पूजा इस प्रकार करने का अवसर हमें देता है।
संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है, जिनमें आत्मविश्वास
था। यह विश्वास अंत:स्थित देवत्व को ललकार कर प्रकट कर देता है। तब व्यक्ति
कुछ भी कर सकता है; सर्व समर्थ हो जाता है। असफलता तभी होती है, जब तुम
अंत:स्थ अमोघ शक्ति को अभिव्यक्त करने का यथेष्ट प्रयत्न नहीं करते। जिस
क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्म-विश्वास खो देता है, उसी क्षण उसकी मृत्यु
आ जाती है।
हमारे भीतर एक दिव्य तत्त्व है, जो न तो चर्चो के मतवादों से पराभूत किया जा
सकता है, न भर्त्सना से। जहाँ कहीं भी सभ्यता है, वहीं मुट्ठी भर यूनानियों
का प्रभाव प्रकट है। कुछ न कुछ भूलें तो सर्वदा होंगी ही। उस पर खेद मत करो।
महान् अंतर्दृष्टि प्राप्त करो। यह न सोचो : 'जो हो गया, हो गया। क्या ही
अच्छा होता, यदि यह और सुंदर ढंग से संपन्न हुआ होता !' यदि मनुष्य स्वयं
ब्रह्म न होता तो, मानव जाति अब तक प्रार्थनाओं और प्रायश्चित्तों के मारे
पागल हो गई होती।
कोई छूटेगा नहीं, कोई नष्ट भी नहीं होगा। अनंत: सभी को पूर्णत्व की प्राप्ति
होगी। अहर्निश आह्वान करो,'आओ, बंधुओ ! तुम सब पवित्रता के असीम सागर हो !
ब्रह्म बनो ! ब्रह्म-रूप में अपने को प्रकट करो !'
सभ्यता क्या है? वह अंत:स्थ देवत्व की अनुभूति है। जब अवकाश मिले, इन
विचारों की मनसा आवृत्ति करो और मुक्ति की कामना करो। यही सब कुछ है। जो कुछ
ईश्वर नहीं है, उसे अंगीकार मत करो। जो कुछ ईश्वर है, उसे प्रतिष्ठित करो।
अहर्निश इसका मानस संकल्प करो। इस प्रकार आवरण क्षीण होता जाता है।
मैं न मनुष्य हूँ, न देवदूत। न मेरा कोई लिंग है, न कोई मेरी सीमा है। मैं
स्वयं ज्ञान हूँ। मैं ब्रह्म हूँ। न मुझमें रोष है न घृणा। मैं हर्ष-विषाद से
परे हूँ। जन्म-मरण मुझे कभी व्याप्त नहीं हुआ; क्योंकि मैं तो निर्विशेष
ज्ञान, निर्विशेष आनंद हूँ। मैं ब्रह्म हूँ, जो मेरी आत्मा है। मैं ब्रह्म
हूँ !
अपने को अशरीरी अनुभव करो। शरीरबद्ध तुम कभी हुए ही नहीं। वह सब अंधविश्वास
था। समस्त दीन, पददलित, पीड़ित और व्याधिग्रस्त मानवों को दिव्य चेतना
लौटा दो।
लगता है कि हर पंचशती के लगभग इस विचार की एक लहर धरती पर छा जाती है। अनेक
दिशाओं में छोटी छोटी लहरें उठती हैं; पर उन सबको कोई एक लहर आत्मसात कर लेती
है और संपूर्ण समाज पर छा जाती है। जिसके पीछे सर्वाधिक चरित्र-बल होता है,
वही लहर ऐसा कर पाती है।
कन्फ्यूशस, मूसा और पाइथागोरस; बुद्ध, ईशा, मुहम्मद, लूथर, काल्विन और
सिक्ख-गुरु; थियोसॉफ़ी, आत्मवाद तथा ऐसे ही अन्य सिद्धांत; इन सबका
तात्पर्य मनुष्य के अंत:स्थ देवत्व का उपदेश ही है।
कभी मत कहो कि मनुष्य दुर्बल है। ज्ञानयोग अन्य योगों से किसी प्रकार
वरेण्य नहीं है। प्रेम ही आदर्श है; और उसके लिए किसी की आवश्यकता नहीं है।
प्रेम ही ईश्वर है। इसीलिए भक्ति द्वारा भी हमें आत्मस्थ ईश्वर की उपलब्धि
होती है। मैं वही हूँ - ब्रह्म हूँ ! जब तक मनुष्य नगर, देश,जीव और जगत् को
प्यार नहीं करता, तब तक वह काम कैसे कर सकता है? विवेक अनेकता में एकता की
उपलब्धि कराता है। नास्तिकों और अज्ञेयवादियों को समाज-कल्याण के लिए काम
करने दो। इस प्रकार भी ब्रह्म की प्राप्ति होती है।
किंतु एक बात से अपने को सावधान रखो : किसी की आस्था को विचलित मत करो। इतना
ज्ञान तो तुम्हें होना ही चाहिए कि धर्म मतवादों में नहीं है। धर्म की सत्ता
है आत्म-स्थिति में, आत्म-परिणति में, आत्मानुभूति में। सभी मनुष्य
जन्मना मूर्ति-पूजक होते हैं। निम्नतम श्रेणी का मनुष्य पशु मात्र है।
उच्चतम मानव पूर्ण होता है। और इन दोनों के बीच में स्थित सभी को ध्वनि और
रंगों, मतवादों और अनुष्ठानों के माध्यम से विचार करना होता है।
कोई मूर्ति-पूजक की स्थिति को पार कर गया या नहीं, इसकी कसौटी यह है : - "जब
तुम कहते हो 'मैं', तब तुम्हारे मन में तुम्हारा शरीर आता है या नहीं? यदि
'मैं' कहने पर तुम्हारे विचार में तुम्हारा शरीर आ जाता है, तो तुम अब भी
मूर्ति-पूजक हो।" धर्म बौद्धिक कल्पना नहीं है; धर्म अनुभूति है। यदि तुम
ईश्वर के संबंध में विचार करते हो, तो तुम निरे मूर्ख हो। अज्ञानी पुरुष भी
प्रार्थना और भक्ति के सहारे दार्शनिकों से परे - बहुत ऊँचा उठ जा सकता है।
ईश्वर को जानने के लिए किसी भी दर्शनशास्त्र की आवश्यकता नहीं है। हमारा
कर्तव्य दूसरों की आस्था को विचलित करना नहीं है। धर्म अनुभूति है। सर्वोपरि
बात यह है कि हमें सबके प्रति निष्कपट होना चाहिए; तादात्म्य क्लेश पैदा
करता है, क्योंकि वह कामना को जगाता है। एक दीन व्यक्ति सोना देखता है तो
सोने की आवश्यकता के साथ अपना तादात्म्य अनुभव करता है। साक्षी बनो।
प्रतिक्रिया दिखाना मत सीखो।
निष्काम कर्म ही सच्चा संन्यास है
यह संसार कायरों के लिए नहीं है। पलायन की चेष्टा मत करो। सफलता अथवा असफलता
की चिंता मत करो। पूर्ण निष्काम संकल्प में अपने को लय कर दो और कर्तव्य
करते चलो। समझ लो कि सिद्धि पाने के लिए जन्मी बुद्धि अपने आपको दृढ़ संकल्प
में लय करके सतत कर्मरत रहती है। कर्म में तुम्हारा अधिकार है, पर इतने पतित
मत बनो कि फल की कामना करने लगो। अनवरत कर्म करो, पर अनुभव करो कि कर्म के
पीछे भी कुछ है। सत्कर्म भी मनुष्य को महान बंधन में डाल सकते हैं। अत:
सत्कर्मों के, अथवा नाम और यश की कामना के, बंधनों से मत बँधो। जिन्हें इस
रहस्य का ज्ञान हो जाता है, वे जन्म-मृत्यू के चक्र से मुक्त हो जाते हैं,
अमर हो जाते हैं।
सामान्य संन्यासी संसार त्याग देता है, बाहर निकल कर भगवान् का चिंतन करता
हैं। सच्चा संन्यासी तो संसार में ही रहता है; पर उसका बनकर नहीं। जो
आत्म-निग्रह करते हैं, जंगल में रहते हैं और अतृप्त वासनाओं की जुगाली क़रते
रहते हैं, वे सच्चे संन्यासी नहीं हैं। जीवन-संग्राम के मध्य डटे रहो।
सुप्तावस्था में अथवा एक गुफा के भीतर तो कोई भी शांत रह सकता है। कर्म के
आवर्त और उन्मादन के बीच दृढ़ रहो और केंद्र तक पहूँचो। और यदि तुम केंद्र पा
गए तो फिर तुम्हें कोई विचलित नहीं कर सकता।